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Tuesday, December 10, 2013

वीर - रामधारी सिंह "दिनकर" / Veer - Ramdhari Singh Dinkar

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं,
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं सच् है , विपत्ति जब आती है ,
कायर को ही दहलाती है ,
सूरमा नहीं विचलित होते ,
क्षण एक नहीं धीरज खोते ,
विघ्नों को गले लगाते हैं ,
कांटों में राह बनाते हैं ।

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं ,
संकट का चरण न गहते हैं ,
जो आ पड़ता सब सहते हैं ,
उद्योग - निरत नित रहते हैं ,
शुलों का मूळ नसाते हैं ,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं ।

है कौन विघ्न ऐसा जग में ,
टिक सके आदमी के मग में ?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़ ,
मानव जब जोर लगाता है ,
पत्थर पानी बन जाता है ।

गुन बड़े एक से एक प्रखर ,
हैं छिपे मानवों के भितर ,
मेंहदी में जैसी लाली हो ,
वर्तिका - बीच उजियाली हो ,
बत्ती जो नहीं जलाता है ,
रोशनी नहीं वह पाता है ।

Wednesday, July 18, 2012

Raat Yo Kahne Laga Mujse Gagan ka Chaand - By Ramdhari SIngh Dinkar



रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

Sunday, April 15, 2012

Shakti Aur Kshma - Ramdhari Singh Dinkar


Very nice and inspiration poem written by great hindi poet Ramdhari Singh 'Dinkar'


Kshama, daya, tap, tyaag, manobal
Sabka liya sahara
Par nar vyagh Suyodhan tumse
Kaho kahan kab haara?


Kshamasheel ho rrpu-saksham
Tum huye vineet jitna hi
Dusht Kauravon ne tumko
Kaayar samjha utna hi


Atyachar sahan karne ka
Kufal yahi hota hai
Paurush ka aatank manuj
Komal hokar khota hai


Kshama shobhti us bhujang ko
Jiske paas garal hai
Uska kya jo dantheen
Vishrahit vineet saral hai


Teen divas tak panth mangte
Raghupati sindhu kinare
Baithey padhtey rahey chhand
Anunay ke pyaare pyaare


Uttar mein jab ek naad bhi
Utha nahi saagar se
Uthi adheer dhadhak paurush ki
Aag raam ke shar se


Sindhu deh dhar trahi-trahi
Karta aa gira sharan mein
Charan pooj daasta grrhan ki
Bandha moodh bandhan mein


Sach poochho to shar mein hi
Basti hai deepti vinay ki
Sandhivachan sampoojya usika
Jisme shakti vijay ki


Sahansheelta, kshama, daya ko
Tabhi poojta jag hai
Bal ka darp chamakta uskey
Peechhey jab jagmag hai!!




-Ramdhari Singh 'Dinkar'